किशानो के फार्मो पर चला बुलडोजर कार्यवाही उचित है या मजबूरी ॽ

धरमजयगढ़ के मेडारमार के किसानों के जमीन मे निर्मित मुर्गी फार्मों पर प्रशासन का बुलडोजर चला है कारण दो में से एक हो सकता है पहला भुअर्जन दुसरा भुमी डायवर्सन। एक जानकारी अनुसार यदि भुअर्जन का विषय है तो उक्त भूमि पर खरिद बिक्री के साथ साथ निर्माण कार्य पर रोक लगाई जाती है जिसकी सूचना जारी किया जाना चाहिए और यदि विषय भुमि डायवर्सन का है तो कृषि आधारित व्यवसाय जैसे मुर्गी पालन गाय पालन बकरी पालन मछली पालन इत्यादि हेतु डायवर्सन की आवश्यकता नहीं होती है वहीं मेडारमार के किसानों के अनुसार निर्माण से पहले प्रशासन की तरफ से कोई नोटिस नहीं मिला था नहीं कोई सुचना की उन्हें जानकारी थी।जब किसानों को 10 दिवस के अन्दर निर्माण तोड़ने का नोटिस दिया गया तो किसानों ने स्टे के लिए हाई कोर्ट कि शरण में गए जहां से स्टे ऑर्डर मिलने की संभावना प्रबल थी मगर स्टे मिलने में देरी होने के कारण प्रशासन ने तय समय सीमा में अपना कार्यवाही पूर्ण किया। जिसका शिकार पुराने कृषक भी हुए समय सीमा में कार्यवाही पूर्ण करवाने में कहीं ना कहीं स्थानीय सत्ता का भी अहम योगदान हो सकता है। स्थानीय सत्ता कंपनी के आकाओं के सामने मजबूर हुए होंगे।
नहीं तो ,हम समस्त भारतवासी इस सत्य को भलीभांति जानते हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है।कृषक के जीवन में कृषि के साथ ही उसको सहयोग प्रदान करते हुए चलता है पशुपालन, और आज पशुपालन के क्षेत्र में पोल्ट्री फार्मिंग ने एक महत्वपूर्ण जगह बना लिया है।यदि हम भारतीय पशुपालन पर नजर डालें तो पाएंगे कि पोल्ट्री व्यवसाय ही एक ऐसा व्यवसाय रहा है जो अन्य पशुपालन व्यवसायों की तुलना में,विगत वर्षों में तीव्र गति से बढ़ा है और आज भी बढ़ रहा है।किंतु आज इस व्यवसाय को विभिन्न प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है और यदि समय रहते इन परेशानियों का समाधान नहीं हो पाया तो भारतीय कृषक इस व्यवसाय को बंद करते चले जायेंगे।और बंद होने की वजह यह होगी १- कृषकों जब अपना पोल्ट्री फार्म अपनी कृषि भूमि पर बनाता है।तब ये सभी फार्म शहरी तथा ग्रामीण आबादियों से दूर उनके खेतों में होते हैं।ये समस्त फार्म ग्रामपंचायतों से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेकर बनाये जाते हैं।किंतु धीरे-धीरे जनसंख्या बढ़ती है और भूमाफियाओं के द्वारा आसपास की कृषि भूमि खरीदकर उसे आवासीय भूमि में डायवर्सन करवाकर वहाँ रहवासी कालोनियां बनानी शुरू कर दीं जाती है।अब ये भूमाफिया तथा इन कॉलोनियों में रहने वाले लोग इन पोल्ट्री किसानों पर,प्रदूषण को मुद्दा बनाकर विभिन्न माध्यमों से दबाव बनाते हैं कि फार्म बंद कर दो,ऐसे कई प्रकरण न्यायालयों में भी विचाराधीन हैं।महत्वपूर्ण बात यह है कि आज यह पोल्ट्री व्यवसाय उस किसान तथा उसके आश्रित परिवार के आजिविका का मुख्य स्रोत है, इसे वह कैसे बन्द कर दे…?जबकि उसनें पशुपालन के अंतर्गत आने वाले समस्त नियमों का पालन करते हुए अपना पोल्ट्री फार्म खोला था।आज उससे पूछा जाता है कि…*तुमनें पोल्ट्री फार्म खोलने हेतु अपनी कृषि भूमि का व्यवसायिक भूमि में डायवर्सन करवाया है कि नहीं…? जबकि नियम तो यह है कि पोल्ट्री व्यवसाय कृषि-सह कार्य (Allied Agriculture) के अंतर्गत आता है और उसके लिए कृषि भूमि का व्यवसायिक भूमि में डायवर्सन करवाना आवश्यक ही नहीं है।
*तुमनें अपना पोल्ट्री फार्म खोलने से पहले “ग्राम तथा नगर निवेश” से अनुमति ली थी कि नहीं…? जबकि जब ये फार्म खुले थे तब ये शहरी आबादी तथा नगर निगम क्षेत्रों से बाहर थे,और नियम यह है कि 1लाख मुर्गियों से कम क्षमता का पोल्ट्री फार्म खोलने हेतु किसी से अनुमति की आवश्यकता ही नहीं है।
*तुमनें अपना पोल्ट्री फार्म खोलने से पहले प्रदूषण विभाग से अनुमति ली थी कि नहीं…? जबकि यहाँ भी यही नियम है कि पोल्ट्री व्यवसाय एक कृषि सह-कार्य है जिससे वातारण को कोई नुकसान नहीं होता है तथा 1लाख मुर्गियों से कम क्षमता वाले पोल्ट्री फार्मों को इसकी आवश्यकता ही नहीं है।, अब प्रश्न यह है कि जिस तरह अपनी कृषि भूमि पर अपना पोल्ट्री फार्म खोलने हेतु ग्रामपंचायत का अनापत्ति प्रमाण पत्र लेना होता है,ठीक उसी तरह किसी पोल्ट्री फार्म के आसपास रहवासी कॉलोनी बनाने से पहले स्थानीय पोल्ट्री संगठनों का अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं लेना चाहिए…?
एक अन्य बात यह भी है जो कि विचारणीय है,जितने भी केंद्रीय कुक्कुट अनुसंधान केंद्र (CPDO)हैं या शासकीय कुक्कुट पालन केंद्र हैं वे सभी शहर के बीचोंबीच हैं तो क्या उनसे कोई नुकसान नहीं है…भारत एक विशाल राष्ट्र है,दुनिया के कई देश तो इसके एक-एक राज्य के बराबर भी नहीं हैं,ऐसी परिस्थिति में यह कहाँ तक तर्कसंगत एवं न्यायसंगत है कि केरल के किसी एक गाँव में दो चार देशी मुर्ग़ियों में बर्ड-फ्लू का वाइरस पाया जाए और पूरे भारत में अलर्ट जारी कर दिया जाए कि अंडे और चिकन का सेवन ना किया जाए।इससे एक ओर जहाँ पोल्ट्री उत्पादों का निर्यात बन्द हो जाता है वहीं दूसरी ओर अफवाहों के कारण देश में भी इनकी खपत बन्द हो जाती है,इस दोहरी मार से पोल्ट्री किसानों को जबरदस्त आर्थिक नुकसान पहुँचता है।इस आर्थिक त्रासदी से बचने के लिए क्या भारत को 8 या 9 पोल्ट्री जोन में नहीं बांट देना चाहिए, ताकि यदि किसी एक जोन में बर्ड-फ्लू की शिकायत मिलती भी है तो सिर्फ उसी क्षेत्र को निगरानी में रखा जाए शेष जोन इससे अप्रभावित रहें।यदि ऐसा हो पाया तो भारतीय पोल्ट्री व्यवसाय के लिए यह वरदान होगा।३- अमेरिकन चिकन लेग पीस को भारत मे आयात होने से रोका जाए नहीं तो भारतीय पोल्ट्री उद्योग को बड़ी आर्थिक क्षति होगी।अनुमानतः ये आयातित चिकन लेग पीस भारत का लगभग 40% व्यवसाय छीन लेंगे।४-भारतीय पोल्ट्री उद्योग में सालाना लगभग 120 लाख टन मक्का एवं 40 लाख टन सोयामील की खपत होती है जो प्रत्यक्ष रूप से भारतीय कृषि उद्योग को सहायता प्रदान करता है।५-विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) नें माँ के दूध के बाद अंडे के प्रोटीन को “उच्च प्रोटीन जैविक गुणांक” के साथ प्रकृति में उपलब्ध सर्वोत्तम प्रोटीन का स्रोत माना है।अंडे में प्रोटीन के साथ साथ अन्य पोषक तत्व भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं।यदि अंडे को समूचे भारतवर्ष की आंगनबाड़ी केंद्रों तथा स्कूलों के मध्यान्ह भोजन में शामिल कर दिया जाए तो कुपोषण हटाने में हमें एक बड़ी जीत प्राप्त हो सकती है।६-पोल्ट्री को कृषि सह-कार्य की जगह पूर्ण कृषि का दर्जा दिया जाना चाहिए ताकि पोल्ट्री किसानों को कृषि में मिलने वाली सहायता मिल सकें।मगर कंपनियों के आगे सारी सिस्टम नमस्तक नजर आ रहा है।